नई दिल्ली, नीरज भाई पटेल
24 जनवरी, 1924 को समस्तीपुर के पितौंझिया (अब कर्पूरीग्राम) में जन्में कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे. 1952 की पहली विधानसभा में चुनाव जीतने के बाद वे बिहार विधानसभा का चुनाव कभी नहीं हारे.
सवाल ये है कि अपने निधन के 33 साल बाद भी आखिर कर्पूरी ठाकुर इतने प्रासंगिक क्यों हैं ? क्यों तमाम राजनीतिक दलों द्वारा उनकी विरासत को हथियाने की कोशिश की जा रही है ? क्यों सामाजिक न्याय के योद्धाओं द्वारा उनकी जयंती इतने जोर-शोर से मनाई जा रही है ?
ऐसे न जाने कितने मुख्यमंत्री आए चले गए फिर आखिर पिछड़े वर्ग के नाई समाज में जन्मे कर्पूरी ठाकुर ही जननायक कैसे बन गए इस लेख में हमने इसी का जवाब ढूंढने की कोशिश की है।
मुख्यमंत्री रहते हुए कर्पूरी ठाकुर ने बिहार के वंचितों के हक में न सिर्फ काम किया, बल्कि उनका मनोबल भी बढ़ाया, जिसकी वजह से दलित-पिछड़े राजनीति में ही नहीं बल्कि हर क्षेत्र में आगे बढ़े हैं. उन्होंने पिछड़ों को 26 फीसदी आरक्षण भी देना का काम किया, जो कि देश में पहली बार बिहार में लागू किया गया था.
ढाई साल के मुख्यमंत्रित्व काल में शानदार काम-
अपने दो कार्यकाल में कुल मिलाकर ढ़ाई साल के मुख्यमंत्रित्व काल में उन्होंने जिस तरह की छाप बिहार के समाज पर छोड़ी है, वैसा दूसरा उदाहरण नहीं दिखता. ख़ास बात ये भी है कि वे बिहार के पहले गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे. राजनीति में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब उनका निधन हुआ तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था. ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए.
1967 में पहली बार उपमुख्यमंत्री बनने पर उन्होंने अंग्रेजी की अनिवार्यता को खत्म किया. इसके चलते उनकी आलोचना भी ख़ूब हुई लेकिन हक़ीक़त ये है कि उन्होंने शिक्षा को आम लोगों तक पहुंचाया. इस दौर में अंग्रेजी में फेल मैट्रिक पास लोगों का मज़ाक ‘कर्पूरी डिविजन से पास हुए हैं’ कह कर उड़ाया जाता रहा.
इसी दौरान उन्हें शिक्षा मंत्री का पद भी मिला हुआ था और उनकी कोशिशों के चलते ही मिशनरी स्कूलों ने हिंदी में पढ़ाना शुरू किया और आर्थिक तौर पर ग़रीब बच्चों की स्कूल फी को माफ़ करने का काम भी उन्होंने किया था. वो देश के पहले मुख्यमंत्री थे, जिन्होंने अपने राज्य में मैट्रिक तक मुफ्त पढ़ाई की घोषणा की थी. उन्होंने राज्य में उर्दू को दूसरी राजकीय भाषा का दर्जा देने का काम किया.

किसानों के लिए –
1971 में मुख्यमंत्री बनने के बाद किसानों को बड़ी राहत देते हुए उन्होंने गैर लाभकारी जमीन पर मालगुजारी टैक्स को बंद कर दिया. बिहार के तब के मुख्यमंत्री सचिवालय की इमारत की लिफ्ट चतुर्थवर्गीय कर्मचारियों के लिए उपलब्ध नहीं थी, मुख्यमंत्री बनते ही उन्होंने चर्तुथवर्गीय कर्मचारी लिफ्ट का इस्तेमाल कर पाएं, ये सुनिश्चित किया.
आज की तारीख में भले ये मामूली क़दम दिखता हो लेकिन संदेशात्मक राजनीति में इसके मायने बहुत ज़्यादा थे. बिहार के पूर्व एमएलसी प्रेम कुमार मणि कहते हैं, “उस दौर में समाज में उन्हें कहीं अंतरजातीय विवाह की ख़बर मिलती तो उसमें वो पहुंच जाते थे. वो समाज में एक तरह का बदलाव चाहते थे, बिहार में जो आज दबे पिछड़ों को सत्ता में हिस्सेदारी मिली हुई है, उसकी भूमिका कर्पूरी ठाकुर ने बनाई थी.”
1977 में मुख्यमंत्री बनने के बाद मुंगेरीलाल कमीशन लागू करके राज्य की नौकरियों आरक्षण लागू करने के चलते वो हमेशा के लिए सर्वणों के दुश्मन बन गए, लेकिन कर्पूरी ठाकुर समाज के दबे पिछड़ों के हितों के लिए काम करते रहे.
मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने राज्य के सभी विभागों में हिंदी में काम करने को अनिवार्य बना दिया था. इतना ही नहीं उन्होंने राज्य सरकार के कर्मचारियों के समान वेतन आयोग को राज्य में भी लागू करने का काम सबसे पहले किया था.
युवाओं को रोजगार देने के प्रति उनकी प्रतिबद्धता इतनी थी कि एक कैंप आयोजित कर 9000 से ज़्यादा इंजीनियरों और डॉक्टरों को एक साथ नौकरी दे दी. इतने बड़े पैमाने पर एक साथ राज्य में इसके बाद आज तक इंजीनियर और डॉक्टर बहाल नहीं हुए.
दिन रात राजनीति में ग़रीब गुरबों की आवाज़ को बुलंद रखने की कोशिशों में जुटे कर्पूरी की साहित्य, कला एवं संस्कृति में काफी दिलचस्पी थी. प्रेम कुमार मणि याद करते हैं, “1980-81 की बात होगी, पटना में एक कांग्रेसी सांसद के पारिजात प्रकाशन की दुकान पर मैंने उन्हें हिस्ट्री ऑफ़ धर्मशास्त्र ख़रीदते खुद देखा था. छह खंड वाली किताब उस वक्त तीन-साढ़े तीन हज़ार रुपये की थी. वे पढ़ने का समय निकाल ही लेते थे.”
न पटना में घर न ही गांव में-
राजनीति में इतना लंबा सफ़र बिताने के बाद जब उनका निधन हुआ तो अपने परिवार को विरासत में देने के लिए एक मकान तक उनके नाम नहीं था. ना तो पटना में, ना ही अपने पैतृक घर में वो एक इंच जमीन जोड़ पाए. जब करोड़ो रूपयों के घोटाले में आए दिन नेताओं के नाम उछल रहे हों, कर्पूरी जैसे नेता भी हुए, विश्वास ही नहीं होता. उनकी ईमानदारी के कई किस्से आज भी बिहार में आपको सुनने को मिलते हैं.
उनसे जुड़े कुछ लोग बताते हैं कि कर्पूरी ठाकुर जब राज्य के मुख्यमंत्री थे तो उनके रिश्ते में उनके बहनोई उनके पास नौकरी के लिए गए और कहीं सिफारिश से नौकरी लगवाने के लिए कहा. उनकी बात सुनकर कर्पूरी ठाकुर गंभीर हो गए. उसके बाद अपनी जेब से पचास रुपये निकालकर उन्हें दिए और कहा, “जाइए, उस्तरा आदि खरीद लीजिए और अपना पुश्तैनी धंधा आरंभ कीजिए.”
एक किस्सा उसी दौर का है कि उनके मुख्यमंत्री रहते, उनके गांव के कुछ दबंग सामंतों ने उनके पिता को अपमानित करने का काम किया. ख़बर फैली तो जिलाधिकारी गांव में कार्रवाई करने पहुंच गए, लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने जिलाधिकारी को कार्रवाई करने से रोक दिया. उनका कहना था कि दबे पिछड़ों को अपमान तो गांव गांव में हो रहा है.
एक और उदाहरण है, कर्पूरी ठाकुर जब पहली बार उपमुख्यमंत्री बने या फिर मुख्यमंत्री बने तो अपने बेटे रामनाथ को खत लिखना नहीं भूले. इस ख़त में क्या था, इसके बारे में रामनाथ कहते हैं, “पत्र में तीन ही बातें लिखी होती थीं- तुम इससे प्रभावित नहीं होना. कोई लोभ लालच देगा, तो उस लोभ में मत आना. मेरी बदनामी होगी.”
रामनाथ ठाकुर इन दिनों भले राजनीति में हों और पिता के नाम का फ़ायदा भी उन्हें मिला हो, लेकिन कर्पूरी ठाकुर ने अपने जीवन में उन्हें राजनीतिक तौर पर आगे बढ़ाने का काम नहीं किया.

देश में पहली बार ओबीसी को आरक्षण दिलाया-
बिहार में कर्पूरी ठाकुर ने 1973-77 के दौरान जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले आंदोलन में अहम भूमिका निभाई. इंदिरा गांधी के आपातकाल के खिलाफ जेल गए और जब 1977 में लोकसभा चुनाव हुए तो वो समस्तीपुर लोकसभा क्षेत्र से सांसद चुने गए. हालांकि, ठाकुर 24 जून 1977 को दोबारा मुख्यमंत्री बने. उन्होंने 11 नवंबर 1977 को मुंगेरी लाल समिति की सिफारिशें लागू कर दीं, जिसके चलते पिछड़े वर्ग को सरकारी सेवाओं में 26 फीसदी आरक्षण का लाभ मिलने लगा. एससी-एसटी के अलावा ओबीसी के लिए आरक्षण लागू करने वाला बिहार देश का पहला राज्य बना.
कर्पूरी ठाकुर लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के राजनीतिक गुरू थे. इन दोनों नेताओं ने जनता पार्टी के दौर में कर्पूरी ठाकुर की उंगली पकड़कर सियासत के गुर सीखें है. इसीलिए लालू यादव ने जब सत्ता की कमान संभाली तो कर्पूरी ठाकुर के कामों को ही आगे बढ़ाने का काम किया. दलित और पिछड़ों के हक में कई काम किए. 17 फरवरी 1988 को अचानक तबीयत बिगड़ने के चलते कर्पूरी ठाकुर का निधन हो गया था, लेकिन उनका सामाजिक न्याय का नारा आज भी बिहार में बुलंद है.
जब कर्पूरी को कोट मांगना पड़ा-
कर्पूरी ठाकुर के बेटे और जदयू से राज्यसभा सांसद रामनाथ अपने पिता की सादगी का एक किस्सा बताते हैं, “जननायक 1952 में विधायक बन गए थे. एक प्रतिनिधिमंडल में जाने के लिए ऑस्ट्रिया जाना था. उनके पास कोट ही नहीं था. एक दोस्त से मांगना पड़ा. वहां से यूगोस्लाविया भी गए तो मार्शल टीटो ने देखा कि उनका कोट फटा हुआ है और उन्हें एक कोट भेंट किया.”
साहित्कार व एमएलसी प्रेम कुमार मणि कहते हैं कि कर्पूरी वास्तविकता में समाजवादी राजनीति के बड़े नेता रहे हैं, उनके नाम पर माल्यापर्ण करने वाले उनकी सादगी और ईमानदारी भरे रास्ते पर चलने का साहस नहीं कर पाऐंगे, इसलिए भी कर्पूरी जैसे नेताओं को याद रखा जाना ज़रूरी है.
कर्पूरी बिहार की परंपरागत व्यवस्था में करोड़ों वंचितों की आवाज़ बने रहे. वे किसी भी दल से गठबंधन कर सरकार तो बना लेते थे, लेकिन अगर मन मुताबिक काम नहीं हुआ तो गठबंधन तोड़कर निकल भी जाते थे.
यही वजह है कि उनके दोस्त और दुश्मन दोनों को ही उनके राजनीतिक फ़ैसलों के बारे में अनिश्चितता बनी रहती थी. कर्पूरी ठाकुर का निधन 64 साल की उम्र में 17 फरवरी, 1988 को दिल का दौरा पड़ने से हुआ था.
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